हास्य-व्यंग्य >> हर हाल में खुश हैं हर हाल में खुश हैंप्रवीण शुक्ल
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अल्हड़ बीकानेरी द्वारा लिखी हुई हास्य-व्यंग्य कविताओं का प्रवीन शुक्ला के द्वारा वर्णन किया हुआ है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अल्हड़ जी अपने भावों को बहुत ही सहजता के साथ, सरल भाषा में, छन्दों में
इस प्रकार ढाल देते हैं कि वह आपके मन के सरोवर में पहुँचकर कब उसे
सुवासित करने लगे। इसका पता स्वयं आपको भी नहीं लग पाता। कविता उनके लिए
मंच पर की जाने वाली प्रार्थना है। इस प्रार्थना के लिए उन्होंने पारंपरिक
और नवीन छंदों का प्रयोग किया है। छंद उनके लिए मां सरस्वती के सम्मुख
समर्पित किये जाने वाले पवित्र पुष्पों के समान हैं। ऐसे पवित्र पुष्प,
जिनके साथ की गई जरा-सी छेड़छाड़ भी उनकी पूजा में विघ्न डालती है।
उनकी कविताओं में फूलों की महक भी है और काँटों की चुभन भी। लेकिन ये चुभन किसी ऐसे काँटे की नहीं है जो किसी बेकसूर के पावों को घायल कर दे बल्कि ये वो काँटा है, जिससे आप अपने पावों में चुभे दूसरे काँटों को निकाल सकते हैं। समाज उनकी कविताओं की प्रयोगशाला है। उनके कवि मन की कोमल कल्पनाएँ जब यथार्थ की पथरीली जमीन से टकराती हैं तो तीक्ष्ण व्यंग्य की व्युत्पत्ति ही हो जाती है। जिन सामाजिक रूढ़ियों, आर्थिक दुश्चिन्ताओं, राजनीतिक, विडम्बनाओं, प्रशासनिक विसंगतियों तथा क्षणभँगुर जीवन की विद्रूपताओं ने उनके अन्तर्मन को भीतर कचोटा है, वे उनकी कविताओं का कच्चा चिट्ठा है। इसलिए इस कच्चे चिट्ठे को वे अपनी कविताओं में नये-नये तरीकों से प्रस्तुत करते रहते हैं।
उनकी कविताओं में फूलों की महक भी है और काँटों की चुभन भी। लेकिन ये चुभन किसी ऐसे काँटे की नहीं है जो किसी बेकसूर के पावों को घायल कर दे बल्कि ये वो काँटा है, जिससे आप अपने पावों में चुभे दूसरे काँटों को निकाल सकते हैं। समाज उनकी कविताओं की प्रयोगशाला है। उनके कवि मन की कोमल कल्पनाएँ जब यथार्थ की पथरीली जमीन से टकराती हैं तो तीक्ष्ण व्यंग्य की व्युत्पत्ति ही हो जाती है। जिन सामाजिक रूढ़ियों, आर्थिक दुश्चिन्ताओं, राजनीतिक, विडम्बनाओं, प्रशासनिक विसंगतियों तथा क्षणभँगुर जीवन की विद्रूपताओं ने उनके अन्तर्मन को भीतर कचोटा है, वे उनकी कविताओं का कच्चा चिट्ठा है। इसलिए इस कच्चे चिट्ठे को वे अपनी कविताओं में नये-नये तरीकों से प्रस्तुत करते रहते हैं।
जंगल में मिला ठूँठ बड़े प्यार से चूमा
खेतों में मिला ऊँट बड़े प्यार से चूमा
शादी में मिला सूट बड़े प्यार से चूमा
गौने में मिला बूट बड़े प्यार से चूमा
रूमाल मिला तो उसी रूमाल में खुश हैं
पूरे हैं वो ही मर्द जो हर हाल में खुश हैं
खेतों में मिला ऊँट बड़े प्यार से चूमा
शादी में मिला सूट बड़े प्यार से चूमा
गौने में मिला बूट बड़े प्यार से चूमा
रूमाल मिला तो उसी रूमाल में खुश हैं
पूरे हैं वो ही मर्द जो हर हाल में खुश हैं
परिचय
नाम : अल्हड़ बीकानेरी
पूरा नाम : श्याम लाल शर्मा
जन्म तिथि : 17 मई, 1937
जन्म स्थान : गाँव बीकानेर, ज़िला रेवाड़ी (हरियाणा भारत)
शब्द यात्रा : 1962 से गीत ग़ज़ल में पदार्पण। 1967 से हास्य-व्यंग्य कविताओं का देश-विदेश में सस्वर काव्य पाठ। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से प्रसारित। लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
फिल्म यात्रा : 1986 में हरियाणवी फ़ीचर फ़िल्म (रंगीन) छोटी साली के गीत कहानी का लेखन तथा निर्माण कार्य।
प्रकाशन यात्रा : 1. भज प्यारे तू सीताराम 2. घाट-घाट घूमे, 3. अभी हँसता हूँ, 4. अब तो आँसू पोंछ 5. भैंसा पीवे सोमरस, 6. ठाठ ग़ज़ल के 7. रेत पर जहाज़, 8. अनछुए हाथ, 9. खोल न देना द्वार, 10. जय मैडम की बोल रे।
पुरस्कार यात्रा : 1. ठिठोली पुरस्कार दिल्ली 1981, 2. काका हाथरसी पुरस्कार-हाथरस 1986, 3. टेपा पुरस्कार-उज्जैन 2004, 4. मानस पुरस्कार-कानपुर 2000, 5. व्यंग्य श्री पुरस्कार बदायूँ 2004।
सम्मान यात्रा : 1. लायंस क्लब, दिल्ली 1982, 2. अखिल भारतीय नागरिक परिषद 1993, 3. राष्ट्रपति द्वारा अभिनन्दन 1996, 4. ‘यथासंभव’-उज्जैन 1997, 5. ‘काव्य गौरव’-अखिल भारतीय कवि सभा दिल्ली 1998, 6. ‘काका हाथरसी सम्मान’ दिल्ली सरकार-2000, 7. हरियाणा गौरव सम्मान, हरियाणा सरकार-2004।
विदेश यात्रा : थाईलैण्ड सिंगापुर 1990, मस्कट-2004, दुबई-2005
सम्पर्क सूत्र : 9-सी पॉकेट बी, मयूर विहार फ़ेज-2, दिल्ली 110091
दूरभाष : 22778485, 22778486 मो. 9350556905
पूरा नाम : श्याम लाल शर्मा
जन्म तिथि : 17 मई, 1937
जन्म स्थान : गाँव बीकानेर, ज़िला रेवाड़ी (हरियाणा भारत)
शब्द यात्रा : 1962 से गीत ग़ज़ल में पदार्पण। 1967 से हास्य-व्यंग्य कविताओं का देश-विदेश में सस्वर काव्य पाठ। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से प्रसारित। लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
फिल्म यात्रा : 1986 में हरियाणवी फ़ीचर फ़िल्म (रंगीन) छोटी साली के गीत कहानी का लेखन तथा निर्माण कार्य।
प्रकाशन यात्रा : 1. भज प्यारे तू सीताराम 2. घाट-घाट घूमे, 3. अभी हँसता हूँ, 4. अब तो आँसू पोंछ 5. भैंसा पीवे सोमरस, 6. ठाठ ग़ज़ल के 7. रेत पर जहाज़, 8. अनछुए हाथ, 9. खोल न देना द्वार, 10. जय मैडम की बोल रे।
पुरस्कार यात्रा : 1. ठिठोली पुरस्कार दिल्ली 1981, 2. काका हाथरसी पुरस्कार-हाथरस 1986, 3. टेपा पुरस्कार-उज्जैन 2004, 4. मानस पुरस्कार-कानपुर 2000, 5. व्यंग्य श्री पुरस्कार बदायूँ 2004।
सम्मान यात्रा : 1. लायंस क्लब, दिल्ली 1982, 2. अखिल भारतीय नागरिक परिषद 1993, 3. राष्ट्रपति द्वारा अभिनन्दन 1996, 4. ‘यथासंभव’-उज्जैन 1997, 5. ‘काव्य गौरव’-अखिल भारतीय कवि सभा दिल्ली 1998, 6. ‘काका हाथरसी सम्मान’ दिल्ली सरकार-2000, 7. हरियाणा गौरव सम्मान, हरियाणा सरकार-2004।
विदेश यात्रा : थाईलैण्ड सिंगापुर 1990, मस्कट-2004, दुबई-2005
सम्पर्क सूत्र : 9-सी पॉकेट बी, मयूर विहार फ़ेज-2, दिल्ली 110091
दूरभाष : 22778485, 22778486 मो. 9350556905
छन्द, शिल्प और कथ्य का
अद्भुत सामंजस्य
विसंगतियों का यह ऐसा दौर है जिसमें सैंकड़ों ऐसे अकवि महाकवि होने का
भ्रम पाले हुए घूम रहे हैं, जिन्हें न तो कविता में कथ्य के महत्व का ही
कुछ पता है और न ही छन्द के विधान की जानकारी है। ऐसे दौर के बीच अल्हड़
बीकानेरी एक समर्थ शब्द ऋषि के रूप में आज भी हिन्दी साहित्य के क्षेत्र
में अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दर्द करवा रहे हैं। शब्द को उसकी पूरी
सामर्थ्य के साथ कविता में स्थापित करने की जैसी कला उनके पास है वैसी
अन्यत्र उपलब्ध नहीं दीखती।
पहली बात तो यह है कि हास्य रस में कविता लिख पाना ही अत्यंत कठिन है। मैं ऐसे अनेक रचनाकारों को जानता हूँ जिनकी दृष्टि में हास्य रस की कविता लिखना सब से सरल कार्य है लेकिन जब आप उनसे कहेंगे कि जनाब यदि ये इतना ही सरल है तो जरा एक कविता लिखकर दिखाइये तो उनके लिए दो पंक्तियाँ लिख पाना भी दुष्कर हो जायेगा। लेकिन इसके विपरीत अल्हड़ बीकानेरी के पास ऐसी प्रतिभा है जो उन्हें एक तरफ तो ग़ज़लों के उस्ताद के रूप में स्थापित करती है और वहीं दूसरी तरफ हास्य-रस में देश के सर्वाधिक सिद्ध रचनाकार के रूप में भी मान्यता दिलवाती है।
अल्हड़ जी ने अपनी काव्य-यात्रा की शुरुआत 1962 में एक शायर के रूप में की। उन दिनों वे माहिर बीकानेरी के नाम से कविता लिखते थे और धीरे-धीरे उनकी ग़ज़लें लोकप्रिय होने लगी थीं। फिर 1967 में काका हाथरसी की कविताओं से प्रभावित होकर उनका रुझान हास्य-रस की तरफ हो गया। अल्हड़ जी की हास्य-रस की रचनाएँ देखकर उनके अग्रज और उस्ताद जनाब रज़ा अमरोहवी जी ने भी उनसे हास्य रस में ही लिखने और अपना स्थान बनाने की सलाह दे डाली।
अपनी पुस्तक ‘अभी हँसता हूँ’ की भूमिका में उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है-हास्य ऋषि स्व. काका हाथरसी जी की फुलझड़ियों का जादू उन दिनों सिर चढ़ कर बोल रहा था। मैंने भी गम्भीर गीतों और ग़ज़लों को विराम देते हुए, ‘कह अल्हड़ कविराय’ की शैली में सैंकड़ों फुलझड़ियाँ लिख मारीं। अन्ततः देश की सुप्रतिष्ठित पत्रिका धर्मयुग (दिनाँक 23.6.1968) में सुनियोजित परिवार शीर्षक से मेरा जो क़त्आ (मुक्तक) छपा वह इस प्रकार था-
पहली बात तो यह है कि हास्य रस में कविता लिख पाना ही अत्यंत कठिन है। मैं ऐसे अनेक रचनाकारों को जानता हूँ जिनकी दृष्टि में हास्य रस की कविता लिखना सब से सरल कार्य है लेकिन जब आप उनसे कहेंगे कि जनाब यदि ये इतना ही सरल है तो जरा एक कविता लिखकर दिखाइये तो उनके लिए दो पंक्तियाँ लिख पाना भी दुष्कर हो जायेगा। लेकिन इसके विपरीत अल्हड़ बीकानेरी के पास ऐसी प्रतिभा है जो उन्हें एक तरफ तो ग़ज़लों के उस्ताद के रूप में स्थापित करती है और वहीं दूसरी तरफ हास्य-रस में देश के सर्वाधिक सिद्ध रचनाकार के रूप में भी मान्यता दिलवाती है।
अल्हड़ जी ने अपनी काव्य-यात्रा की शुरुआत 1962 में एक शायर के रूप में की। उन दिनों वे माहिर बीकानेरी के नाम से कविता लिखते थे और धीरे-धीरे उनकी ग़ज़लें लोकप्रिय होने लगी थीं। फिर 1967 में काका हाथरसी की कविताओं से प्रभावित होकर उनका रुझान हास्य-रस की तरफ हो गया। अल्हड़ जी की हास्य-रस की रचनाएँ देखकर उनके अग्रज और उस्ताद जनाब रज़ा अमरोहवी जी ने भी उनसे हास्य रस में ही लिखने और अपना स्थान बनाने की सलाह दे डाली।
अपनी पुस्तक ‘अभी हँसता हूँ’ की भूमिका में उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है-हास्य ऋषि स्व. काका हाथरसी जी की फुलझड़ियों का जादू उन दिनों सिर चढ़ कर बोल रहा था। मैंने भी गम्भीर गीतों और ग़ज़लों को विराम देते हुए, ‘कह अल्हड़ कविराय’ की शैली में सैंकड़ों फुलझड़ियाँ लिख मारीं। अन्ततः देश की सुप्रतिष्ठित पत्रिका धर्मयुग (दिनाँक 23.6.1968) में सुनियोजित परिवार शीर्षक से मेरा जो क़त्आ (मुक्तक) छपा वह इस प्रकार था-
कोई कोठी है न कोई प्लाट है
दोस्तों अपना निराला ठाठ है
एक बीबी तीन बच्चे और हम
पाँच प्राणी एक टूटी खाट है’
दोस्तों अपना निराला ठाठ है
एक बीबी तीन बच्चे और हम
पाँच प्राणी एक टूटी खाट है’
इसके बाद हास्य रस में अल्हड़ बीकानेरी जी की जो काव्य यात्रा शुरू हुई वह
आज तक जारी है।
अल्हड़ बीकानेरी जी से मेरी मुलाकात सन् उन्नीस सौ नब्बे में पहली बार हुई। उनका निवास स्थान उस समय मोती बाग नई दिल्ली में था। मैं पिछले पंद्रह वर्षों की अपनी काव्य यात्रा में जैसे-जैसे अल्हड़ बीकानेरी जी की काव्य-यात्रा, छन्द-शास्त्र पर उनके अध्ययन, शब्द के सटीक प्रयोग के प्रति उनकी सजगता आदि को जानता गया, वैसे-वैसे ही उनके प्रति मेरे मन में आदर बढ़ता ही गया।
एक दिन उनसे अनौपचारिक बातचीत हो रही थी तब उन्होंने बताया कि मैंने अपना पहला कवि सम्मेलन दादा भवानी प्रसाद मिश्र जी की अध्यक्षता में उन्नीस सौ सड़सठ में नार्थ ब्लाक में पढ़ा था। उसमें मैंने एक कविता सुनाई थी जिसका शीर्षक था ‘कमाल देखते रहे’। उस कविता को सुनने के बाद जब भवानी प्रसाद मिश्र जी ने मुझे भरपूर आशीर्वाद दिया तो उसने मेरे हौसले को और भी बढ़ा दिया।
अल्हड़ बीकानेरी जी की कविताओं से गुजरते समय आप महसूस करेंगे कि आप एक आम आदमी से साक्षात्कार कर रहे हैं। उनकी कविताएँ आम आदमी की जिन्दगी का आइना हैं। अल्हड़ बीकानेरी जी की अपनी जिन्दगी के अनेक शब्द चित्र आपको उनकी कविताओं में रवानी के साथ बहते हुए नजर आयेंगे। अल्हड़ बीकानेरी जी ने मंच के बिगड़ते हुए माहौल, अपने दफ्तर आस-पास के परिवेश पत्नी से संवादों के साथ-साथ एक मध्यमवर्गीय आम आदमी की जिन्दगी की विसंगतियों को अपनी कविताओं में प्रमुख रूप से उजागर किया है। मुझे लगता है कि उनकी कविताओं के बारे में जानने से पहले एक बार अल्हड़ बीकानेरी जी को निजी तौर पर जानना भी अत्यंत ही आवश्यक है।
17 मई 1937 को हरियाणा के बीकानेर गाँव में जन्मे अल्हड़ बीकानेरी स्वीकारते हैं कि बचपन से मेरा मन संगीत, साहित्य और नाटकों के मंचन में रमने लगा था, मगर मेरे पिता जी मुझ इकलौते पुत्र को ठोक-पीटकर इंजीनियर बनाने पर तुले हुए थे। अप्रैल 1953 का प्रथम सप्ताह....! मैट्रिक में प्रथम स्थान तथा छात्रवृत्ति प्राप्त करके जब मैंने अहीर कॉलेज रेवाड़ी (हरियाणा) में प्रवेश लिया तो इण्टर साइंस के तीन विषय फिजिक्स, ट्रिगनोमेट्री और डिफ्रेंशियल केलकुलस, राहु, केतु और शनि की तरह मेरी खोपड़ी पर सवार हो गये। ‘फर्स्ट इयर’ में प्रमोट और सैंकिड इयर में फेल हो जाने के बाद 2 मई 1955 को मुझे प्रथम विवाह की अग्नि परीक्षा में पास, घोषित कर दिया गया दिसम्बर 1955 से मार्च 1956 तक ‘कस्टोडियन ऑफिस’ गुड़गाँव में नौकरी की।
अप्रैल 1956 में डाक तार ट्रेनिंग सेंटर, सहारनपुर पहुँचते ही अचानक मलेरिया और टायफाईड का भयंकर आक्रमण हो गया जिसकी वजह से मरणासन्न अवस्था में इर्विन अस्पताल, नई दिल्ली की सामयिक चिकित्सा से पुनर्जन्म प्राप्त हुआ।’ यह दौर अल्हड़ बीकानेरी जी के लिए बहुत सारे संकट एक साथ लेकर आया था। गर्दिशों की ये हालत थी कि वे थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। वे बताते हैं-‘जनवरी 1958 से जून 1961 तक, क्रूर काल मेरे छोटे पुत्र, पिता जी, प्रथम, पत्नी, नवजात तीसरा पुत्र तथा सगे भानजे को एक-एक करके निगलता चला गया। ऐसी संकट की स्थितियों के बावजूद अल्हड़ बीकानेरी जी के भीतर बैठे रचनाकार ने उन्हें लगातार हिम्मत प्रदान की। जब दर्द चरम सीमा पर पहुँच जाता तो वे अक्सर मिर्जा गालिब की पंक्तियों को दोहराते-
अल्हड़ बीकानेरी जी से मेरी मुलाकात सन् उन्नीस सौ नब्बे में पहली बार हुई। उनका निवास स्थान उस समय मोती बाग नई दिल्ली में था। मैं पिछले पंद्रह वर्षों की अपनी काव्य यात्रा में जैसे-जैसे अल्हड़ बीकानेरी जी की काव्य-यात्रा, छन्द-शास्त्र पर उनके अध्ययन, शब्द के सटीक प्रयोग के प्रति उनकी सजगता आदि को जानता गया, वैसे-वैसे ही उनके प्रति मेरे मन में आदर बढ़ता ही गया।
एक दिन उनसे अनौपचारिक बातचीत हो रही थी तब उन्होंने बताया कि मैंने अपना पहला कवि सम्मेलन दादा भवानी प्रसाद मिश्र जी की अध्यक्षता में उन्नीस सौ सड़सठ में नार्थ ब्लाक में पढ़ा था। उसमें मैंने एक कविता सुनाई थी जिसका शीर्षक था ‘कमाल देखते रहे’। उस कविता को सुनने के बाद जब भवानी प्रसाद मिश्र जी ने मुझे भरपूर आशीर्वाद दिया तो उसने मेरे हौसले को और भी बढ़ा दिया।
अल्हड़ बीकानेरी जी की कविताओं से गुजरते समय आप महसूस करेंगे कि आप एक आम आदमी से साक्षात्कार कर रहे हैं। उनकी कविताएँ आम आदमी की जिन्दगी का आइना हैं। अल्हड़ बीकानेरी जी की अपनी जिन्दगी के अनेक शब्द चित्र आपको उनकी कविताओं में रवानी के साथ बहते हुए नजर आयेंगे। अल्हड़ बीकानेरी जी ने मंच के बिगड़ते हुए माहौल, अपने दफ्तर आस-पास के परिवेश पत्नी से संवादों के साथ-साथ एक मध्यमवर्गीय आम आदमी की जिन्दगी की विसंगतियों को अपनी कविताओं में प्रमुख रूप से उजागर किया है। मुझे लगता है कि उनकी कविताओं के बारे में जानने से पहले एक बार अल्हड़ बीकानेरी जी को निजी तौर पर जानना भी अत्यंत ही आवश्यक है।
17 मई 1937 को हरियाणा के बीकानेर गाँव में जन्मे अल्हड़ बीकानेरी स्वीकारते हैं कि बचपन से मेरा मन संगीत, साहित्य और नाटकों के मंचन में रमने लगा था, मगर मेरे पिता जी मुझ इकलौते पुत्र को ठोक-पीटकर इंजीनियर बनाने पर तुले हुए थे। अप्रैल 1953 का प्रथम सप्ताह....! मैट्रिक में प्रथम स्थान तथा छात्रवृत्ति प्राप्त करके जब मैंने अहीर कॉलेज रेवाड़ी (हरियाणा) में प्रवेश लिया तो इण्टर साइंस के तीन विषय फिजिक्स, ट्रिगनोमेट्री और डिफ्रेंशियल केलकुलस, राहु, केतु और शनि की तरह मेरी खोपड़ी पर सवार हो गये। ‘फर्स्ट इयर’ में प्रमोट और सैंकिड इयर में फेल हो जाने के बाद 2 मई 1955 को मुझे प्रथम विवाह की अग्नि परीक्षा में पास, घोषित कर दिया गया दिसम्बर 1955 से मार्च 1956 तक ‘कस्टोडियन ऑफिस’ गुड़गाँव में नौकरी की।
अप्रैल 1956 में डाक तार ट्रेनिंग सेंटर, सहारनपुर पहुँचते ही अचानक मलेरिया और टायफाईड का भयंकर आक्रमण हो गया जिसकी वजह से मरणासन्न अवस्था में इर्विन अस्पताल, नई दिल्ली की सामयिक चिकित्सा से पुनर्जन्म प्राप्त हुआ।’ यह दौर अल्हड़ बीकानेरी जी के लिए बहुत सारे संकट एक साथ लेकर आया था। गर्दिशों की ये हालत थी कि वे थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। वे बताते हैं-‘जनवरी 1958 से जून 1961 तक, क्रूर काल मेरे छोटे पुत्र, पिता जी, प्रथम, पत्नी, नवजात तीसरा पुत्र तथा सगे भानजे को एक-एक करके निगलता चला गया। ऐसी संकट की स्थितियों के बावजूद अल्हड़ बीकानेरी जी के भीतर बैठे रचनाकार ने उन्हें लगातार हिम्मत प्रदान की। जब दर्द चरम सीमा पर पहुँच जाता तो वे अक्सर मिर्जा गालिब की पंक्तियों को दोहराते-
इशरते कत़रा है दरिया में फना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
इसके बाद आया सन 1962, बस यहीं से अल्हड़ बीकानेरी जी की ज़िन्दगी और
कविता की दिशा बदलनी प्रारम्भ हुई। मुख्य, डाकघर, कश्मीरी गेट, दिल्ली में
क्लर्की करते-करते अपने सुपरवाइजर श्री श्यामलाल मंगला के ऐंचकताने
प्रभामण्डल से प्रभावित होकर उन्होंने अपनी पहली हास्य कविता
‘अफसर
जी की अमर कहानी’ लिखी तो अचानक पूरे दफ्तर में हंगामा मच गया।
दो
वर्षों का विधुर जीवन भरपूर जीने के बाद अन्नतः उनकी छोटी साली शीलारानी
जी के साथ उनका विवाह 30 जून 1963 को सम्पन्न हुआ। जनवरी 1968 की एक शाम
उनके एक मित्र श्री कृष्ण स्वरूप अनुचर उन्हें श्रीगोपाल प्रसाद व्यास जी
की बैठक में ले गये। व्यास जी का निवास उन दिनों भागीरथ पैलेस में था।
अल्हड़ जी के कुछ छक्के सुनने के बाद उन्होंने कहा कि वे पहले उनका
सम्पूर्ण साहित्य पढ़ें, फिर नया गढ़ें और तभी दुबारा मकान की सीढ़ियाँ
चढ़ें। जाँचने परखने के उपरान्त नवम्बर 1970 में श्रद्धेय व्यास जी उन्हें
कलकत्ता की यात्रा पर ले गये तथा विधिवत अपना शिष्य ग्रहण कर लिया। 23
जनवरी 1971 को उन्होंने लालकिला कवि सम्मेलन में प्रथम बार काव्य पाठ
किया। उसके बाद शुरू हुई अल्लड़ जी की काव्य-यात्रा निरंतर नये-नये
मानदण्ड स्थापित कर रही है।
उनके दस काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इसके बावजूद आज भी नये शब्द, नये भावों और नवीन प्रयोगधर्मी रचनाओं की तरफ उनकी खोजपूर्ण दृष्टि की तलाश निरंतर जारी है। हिन्दी और उर्दू के शब्दकोश आज भी उनके लेखन कक्ष में उनके तकिये के दायीं ओर बहुत सलीके से रखे हुए नजर आते हैं। जब तक वे किसी भी शब्द और उसके प्रयोग को लेकर, अर्थ की दृष्टि से पूरी तरह संतुष्ट न हो जाएँ तब तक उनके लिए आगे एक पँक्ति लिख पाना भी अत्यंत ही कठिन है। इसलिए उनकी कविताएँ आज भी अपनी विशिष्ट पहचान रखती हैं।
उनकी कविताओं पर टिप्पणी करते हुए डा. देवेन्द्र आर्य कहते हैं-‘उनका हास्य अंधेरे मन में धूप सा खिलखिला जाता है और व्यंग्य भीतर तक एक तीखी अनी सा धँसकर विकृत व्यवस्था पर गहरी चोट, करके, दर्द से दर्द की बात पूछने बैठ जाता है।...जीवन जगत के कटु सत्यों को हँसोड़ अल्हड़ ने आँसुओं में डुबोकर लिखा है। इस समर्थ अभिव्यक्ति के लिए अल्हड़ जी का क्या करूँ। उनकी कलम को चूमूँ कि उनकी प्रतिभा को। अभिव्यंजना को युग युगों तक ख्याति के पँख पसार कर उड़ने की कामना करूँ कि मौन रहकर इस गहराई में डूबता उतराता फिरूँ। अल्हड़ जी अपने भावों को बहुत ही सहजता के साथ, सरल भाषा में, छन्दों में इस प्रकार ढाल देते हैं कि वह आपके मन के सरोवर में पहुँचकर कब उसे सुवासित करने लगे इसका पता स्वयं आपको भी सहजता के साथ नहीं लग पाता। कविता उनके लिए मंच पर की जाने वाली प्रार्थना है। इस प्रार्थना के लिए उन्होंने पारंपरिक और नवीन छंदों का प्रयोग किया है। छंद उनके लिए माँ सरस्वती के सम्मुख समर्पित किये जाने वाले पवित्र पुष्पों के समान है। ऐसे पवित्र पुष्प, जिनके साथ की गयी जरा सी छेड़छाड़ भी उनकी पूजा में विघ्न डालती है। इसलिए वे इन छेड़छाड़ करने वालों की तरफ बहुत सलीक़े से इशारा करते हुए कहते भी हैं-
उनके दस काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इसके बावजूद आज भी नये शब्द, नये भावों और नवीन प्रयोगधर्मी रचनाओं की तरफ उनकी खोजपूर्ण दृष्टि की तलाश निरंतर जारी है। हिन्दी और उर्दू के शब्दकोश आज भी उनके लेखन कक्ष में उनके तकिये के दायीं ओर बहुत सलीके से रखे हुए नजर आते हैं। जब तक वे किसी भी शब्द और उसके प्रयोग को लेकर, अर्थ की दृष्टि से पूरी तरह संतुष्ट न हो जाएँ तब तक उनके लिए आगे एक पँक्ति लिख पाना भी अत्यंत ही कठिन है। इसलिए उनकी कविताएँ आज भी अपनी विशिष्ट पहचान रखती हैं।
उनकी कविताओं पर टिप्पणी करते हुए डा. देवेन्द्र आर्य कहते हैं-‘उनका हास्य अंधेरे मन में धूप सा खिलखिला जाता है और व्यंग्य भीतर तक एक तीखी अनी सा धँसकर विकृत व्यवस्था पर गहरी चोट, करके, दर्द से दर्द की बात पूछने बैठ जाता है।...जीवन जगत के कटु सत्यों को हँसोड़ अल्हड़ ने आँसुओं में डुबोकर लिखा है। इस समर्थ अभिव्यक्ति के लिए अल्हड़ जी का क्या करूँ। उनकी कलम को चूमूँ कि उनकी प्रतिभा को। अभिव्यंजना को युग युगों तक ख्याति के पँख पसार कर उड़ने की कामना करूँ कि मौन रहकर इस गहराई में डूबता उतराता फिरूँ। अल्हड़ जी अपने भावों को बहुत ही सहजता के साथ, सरल भाषा में, छन्दों में इस प्रकार ढाल देते हैं कि वह आपके मन के सरोवर में पहुँचकर कब उसे सुवासित करने लगे इसका पता स्वयं आपको भी सहजता के साथ नहीं लग पाता। कविता उनके लिए मंच पर की जाने वाली प्रार्थना है। इस प्रार्थना के लिए उन्होंने पारंपरिक और नवीन छंदों का प्रयोग किया है। छंद उनके लिए माँ सरस्वती के सम्मुख समर्पित किये जाने वाले पवित्र पुष्पों के समान है। ऐसे पवित्र पुष्प, जिनके साथ की गयी जरा सी छेड़छाड़ भी उनकी पूजा में विघ्न डालती है। इसलिए वे इन छेड़छाड़ करने वालों की तरफ बहुत सलीक़े से इशारा करते हुए कहते भी हैं-
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